आर्टिफिशल दीये और रंग-बिरंगी लाइटों ने इनकी जगह ले ली है। इसका दीयों की ब्रिकी पर भी असर पड़ा है। इससे कुम्हार भी मायूस नजर आते है।सीकर में सालासर स्टैंड के पास मिट्टी के बर्तन बनाने वाले कुंभकार कूड़ा राम ने कहा- मैं पिछले 60 साल से मिट्टी के बर्तन बनाने का काम कर रहा हूं। आज से 5-7 साल पहले फिर भी लोग मिट्टी के बर्तन खरीदते थे। अब कोई ग्राहक नहीं बचा। अब बर्तन बनाने के लिए यूज में आने वाली मिट्टी भी धीरे-धीरे खत्म हो गई है। कूड़ा राम बताते हैं- पहले रसोई में सभी बर्तन मिट्टी के होते थे। आज एक भी बर्तन नहीं मिलेगा। मिट्टी के बर्तनों की होड़ कभी नहीं हो सकती। धीरे-धीरे मिट्टी के बर्तन बनाने वाले कुम्हारों की संख्या भी कम हो रही है क्योंकि नई पीढ़ी का रुझान इस तरफ नहीं है। पहले 50-60 लोग एक साथ काम करते थे। अब मुश्किल से 5-7 लोग ही इस इलाके में बचे हैं।जो कुम्हार पहले 50 हजार दीपक एक दिन में बनाता था। वह अब 500 से 600 ही बना रहा है, क्योंकि चाइनीज लाइटों की रोशनी ने' दीये की लौ' छीन ली है। अब तो समय ऐसा है कि अगर कोई त्योहार न आए तो कुंभकार को कोई नहीं पूछता, दिनभर बौनी तक नहीं होती। युवा कुंभकार विजय कुमावत ने बताया- आज के युवा शरीर पर मिट्टी ही नहीं लगने देते तो मिट्टी बर्तन क्या ही बनाएंगे। मिट्टी के बर्तन बनाने की कला धीरे-धीरे लुप्त होती जा रही है। हालांकि, लोकल फॉर वोकल अभियान के बाद थोड़ा स्वदेशी, हस्तनिर्मित उत्पादों को बढ़ावा जरूर मिला है। अगर सरकार जागरूक लाए तो आज भी इस काम में रोजगार की संभावनाएं हैं।