नई दिल्ली। राज्यपालों पर अक्सर सवाल उठाए जाते हैं कि वे अधिक समय तक विधेयकों को लटकाए रहते हैं। इसमें थोड़ी सच्चाई भी है। पिछले साल के आंकड़े देखे जाएं तो राज्यपालों ने 57 फीसद विधेयकों को एक महीने के भीतर मंजूरी दी है।

यहां तक कि कुछ मामलों में दस दिन के भीतर भी राज्यपालों ने विधेयकों को मंजूरी दी है. लेकिन ऐसे भी मामले में हैं, जिसमें छह महीने तक तक समय लगा है। खासकर उन राज्यों में जहां गैर भाजपा सरकार हो। यहां औसतन दो से छह महीने तक का समय लग रहा है।

राष्ट्रपति या राज्यपाल की मंजूरी है जरुरी

तमिलनाडु विधानसभा ने तो गत अप्रैल में एक प्रस्ताव ही पास कर दिया है, जिसमें कहा गया कि राज्यपाल को अवश्य ही एक निश्चित समय में विधानसभा द्वारा पारित बिलों को मंजूरी दे देनी चाहिए। देश में लागू विधायी व्यवस्था के मुताबिक संसद या विधानसभा से पारित विधेयक राष्ट्रपति या राज्यपाल की मंजूरी मिलने के बाद ही कानून बनता है। यानी संसद या विधानसभा कितने भी विधेयक क्यों न पारित कर लें, लेकिन अगर उन्हें राष्ट्रपति या राज्यपाल ने मंजूरी नहीं दी तो वे किसी काम के नहीं होते क्योंकि वे कानून की शक्ल नहीं ले सकते लागू नहीं किये जा सकते।

संविधान में राज्यपालों को अधिकार है कि वे मंजूरी के लिए उनके पास भेजे गए विधानसभा से पारित बिलों को मंजूरी दे सकते हैं, या विधेयक को पुनर्विचार के लिए वापस भेज सकते हैं, राज्यपाल किसी विधेयक को राष्ट्रपति के विचार के लिए भी रख सकते हैं।

क्या कहता है नियम?

नियम यह भी कहता है कि अगर राज्यपाल ने एक बार किसी विधेयक को पुनर्विचार के लिए वापस लौटाया तो अगर दूसरी बार वही विधेयक फिर से पास होकर मंजूरी के लिए आता है तो राज्यपाल को उसे मंजूरी देनी पड़ती है। कई बार राज्यपालों पर विधेयकों को लंबे समय तक रोके रखने के भी आरोप लगते हैं। कुछ मामलों में तो विवाद कोर्ट तक भी पहुंच चुका है।

तेलंगाना सरकार ने SC में दाखिल की थी याचिका

तेलंगाना सरकार ने राज्यपाल द्वारा विधेयकों को मंजूरी न दिये जाने और लटकाए रखने के मामले पर सुप्रीम कोर्ट में याचिका दाखिल की थी और कोर्ट में केस जाने के बाद राज्यपाल ने लंबित विधेयकों को मंजूरी दी थी। इसका कारण है कि संविधान में राज्यपालों को किसी विधेयक पर मंजूरी देने की कोई समय सीमा तय नहीं की गई है। यह एक ग्रे एरिया है।

57 प्रतिशत विधेयकों को राज्यपालों ने एक माह में दी मंजूरी

वर्ष 2022 के पीआरएस लेजिस्लेटिव रिसर्च रिपोर्ट के मुताबिक, राज्य विधानसभाओं द्वारा पारित किये गए 57 प्रतिशत विधेयकों को राज्यपालों ने एक महीने के अंदर मंजूरी दी थी। यानी पचास फीसद से ज्यादा विधेयकों को एक महीने के भीतर मंजूरी मिल गई थी, जिसे तर्कसंगत समय कहा जा सकता है। जबकि 31.3 प्रतिशत विधेयकों को मंजूरी मिलने में एक से दो महीने का समय लगा और 11. 4 प्रतिशत विधेयकों को मंजूरी मिलने में दो महीने से ज्यादा लगे।

इन राज्यों में राज्यपाल ने बहुत कम समय में दी मंजूरी

कुछ मामले ऐसे भी हैं जहां राज्यपाल की मंजूरी में औसतन बहुत ही कम समय लगा। जिसमें सिक्किम (दो दिन), गुजरात (6 दिन) और मिजोरम (6 दिन) शामिल है। जिन राज्यों में मंजूरी में लंबा समय लगा उसमें दिल्ली, पश्चिम बंगाल और छत्तीसगढ़ शामिल है जहां क्रमश: 188, 97 और 89 दिन का समय लगा।