अरणा माता के दरबार में 500 सालों से प्रज्जवलित है अखंड ज्योत
पुजारी के गाल फोड़ने की रस्म के साथ शुरू होता हैं आस्था का लोकपर्व
बूंदी। राष्ट्रीय राजमार्ग 52 पर नमाना रोड़ से लगभग 12 किलोमीटर की दूरी पर कुरेल नदी के तट पर ग्राम अंथडा में स्थित अरणा माता के मंदिर में भाद्रपद मास शुक्ल अष्टमी को गाल फोड़कर जन आस्था का लोकपर्व मनाया जाता है। साथ ही शुरू होता है माता का मेला। मेले की विशेषता यह है सुदूर स्थानों से एक दिन पूर्व से ही आने वाले भक्तों की खचाखच भरी भीड़ में दिव्य शक्ति व देवत्व के चमत्कार के रुप में मां के आशीर्वाद से सम्पन्न होने वाली परंपरा में भोपा पुजारी के गाल फोड़कर माता को नमन किया जाता है। भोपा के गाल फोड़ने के दौरान उनके गाल से एक बूंद भी खून नहीं निकलता। गाल फोड़ने की यह परंपरा आने वाले छः महीने की फसलों के अनुमान से भी जुड़ी हुई हैं, आसानी से गाल फूटना समृद्धि और अच्छी उपज का संकेत देता है तो कठिनाई से गाल फूटना फसलों की उपज में आने वाली समस्याओं को दर्शाती है। श्रद्धा के सैलाब में माता के जयकारे के बीच लोक कल्याण की भावना के साथ आमजन अपनी मनोतियाँ भी मांगते हैं। माता के मंदिर में 500 वर्ष से भी अधिक समय से अखंड ज्योति माता के दरबार में अनवरत प्रज्ज्वलित है। श्रद्धालु अपनी मनोकामना मांगते हैं तथा पूर्ण होने पर माता के दरबार में उपस्थिति लगातें हैं। श्रद्धालुओं की माता के प्रति अटूट मान्यता है।
अरणा पेड़ से प्रकट हो कहलाई अरणा माता
मंदिर समिति के सदस्य लक्ष्मीनारायण नागर बताते हैं कि इस क्षेत्र में अरणां के कई सारे पेड़ थें। लगभग 800 वर्ष पूर्व मातेश्वरी एक बालिका के रूप में अरणा के वृक्ष के नीचे जंगल में चरने वाली गायों का दूध पान करती थी। बालिका के रूप में माताजी द्वारा गायों का दूध पान कर लेने के कारण गाय जब वापस घर पर जाती, तो दूध नहीं दे पाती थी। दूध नहीं दे पाने के कारण की जानकारी करने के लिए गौ चराने वाले पांडे (ब्राह्मणों का एक वर्ग) गौ माता की पीछे पीछे चल दिया। उस पांडै ने यहां पर देखा कि एक बालिका अरणा के पेड़ के नीचे गौ का दूध पान कर रही है। उन्होंने उत्सुकता से पूछे जाने पर बालिका रूपी मातेश्वरी ने प्रसन्न होकर उसी स्थान पर रहने और भवन बनाने की इच्छा जताई। कहा जाता है कि तब इस पांडे समाज द्वारा माता के मन्दिर का निर्माण करवाया गया और तभी से पांडे समाज आज भी इन्हें कुलदेवी के रूप में मानते हैं और पूजा करते हैं। अरणां के पेड़ से प्रकट होने के कारण यह बालिका रूपी मातेश्वरी अरणा माता के नाम से प्रतिद्ध है। वर्ष में दो बार माह भादवा एवं माघ मास की शुक्ल पक्ष अष्टमी का भव्य मेला यहां लगता है। अपनी गौ मनोकामना मांगते हैं तथा पूर्ण होने पर माता के दरबार में उपस्थित होते हैं। श्रद्धालुओं की माता के प्रति अटूट मान्यता है।
पूरे गांव में नहीं हैं पट्टीपोश मकान और दो पल्लड़ के गेट
सरपंच संतोश नागर ने बताया कि गांव की मान्यतानुसार यहां प्रत्येक मकान में एक पल्लड़ वाला दरवाजा ही होता है और छतों पर पत्थर की पट्टिया नहीं रखी जाती, पहले लकड़ी से मकान को ढ़का जाता था। आज भी पूरे गांव में मकानों की छतों पर पट्टियां नहीं लगाई जाती है, हालांकि अब वर्तमान में आरसीसी का प्रयोग होने लगा हैं। ग्राम्य संस्कृति में माता के आशीर्वाद से फलित गावँ में माता जी को सामाजिक एकता का पर्याय माना जाता है। यह मेला आस्था व विश्वास के साथ लोकोत्सव का स्वरूप ले चुका है। ग्रामीण आने वालों के आतिथ्य में कोई कमी नहीं रखते, साथ ही गावँ से जुड़े बाहर रहने वाले परिवारजन भी इस दिन यहां जरूर पहुंचते हैं। ग्रामीण युवा चंद्रप्रकाश नागर बतातें हैं कि यह विशिष्ट सांस्कृतिक क्षेत्र है जो ग्रामीणों की आध्यात्मिक शक्ति का केंद्र है यह पर्यावरण संरक्षण के साथ सामुदायिक विकास सहित परस्पर सहयोग के साथ विकास के आयामों को प्राप्त कर रहा है।