राजनीतिक धुंध में सिर्फ एक चीज साफ नजर आ रही है-इस समय गेंद ही नहीं पूरा मैदान मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के पाले में है। वे अपने मन से टीम बनाएं। चाहें जिसे अपनी टीम में रखें।बाकी बचे दलों को प्रतिद्वंद्वी टीम का हिस्सा बना दें। सभी दलों में इस प्रकरण पर साफ-साफ कुछ बोलने पर रोक लगी हुई है। फिर भी बाहर यह बात निकल कर आ रही है कि कुछ खास होने जा रहा है। कुछ खास यह कि नीतीश भाजपा को छोड़ देंगे। यह भी कि भाजपा उन्हें मना लेगी। संभावना है कि मंगलवार को जदयू सांसदों व की बैठक में नीतीश अपना रूख साफ करें। भाजपा खेमे को भरोसा है कि नीतीश की नाराजगी दूर कर ली जाएगी। उधर राजद, कांग्रेस और वाम दल नीतीश के फैसले की प्रतीक्षा कर रहे हैं। इन दलों की कोई शर्त नहीं है। भाजपा कोटे के सभी मंत्रालय मिल जाए, इतने से काम चल जाएगा। राजद को बड़े हिस्से की उम्मीद है। इसमें उप मुख्यमंत्री के पद के अलावा महत्वपूर्ण मंत्रालय भी है।

नीतीश की नाराजगी क्या है?

2020 के विधानसभा चुनाव में चिराग पासवान की भूमिका और केंद्रीय मंत्रिमंडल में मांग के अनुरूप भागीदारी न मिलना नाराजगी का पुराना कारण हो सकता है। लेकिन, कई नए कारण भी बने हैं। बोचहां उप चुनाव में भाजपा के लिए वोट मांगते समय दबी जुबान से ही सही, यह प्रचार किया गया कि इस उप चुनाव में जीत के साथ ही सरकार का नेतृत्व बदल जाएगा। केंद्रीय गृह राज्य मंत्री नित्यानंद राय मुख्यमंत्री बन जाएंगे। उप चुनाव में हार के साथ ही नित्यानंद राय परिदृश्य से बाहर चले गए। दूसरा मामला विधानसभा के बजट सत्र का है। उसमें विधानसभा अध्यक्ष विजय कुमार सिन्हा की भूमिका से मुख्यमंत्री आहत हुए। बजट सत्र को नीतीश कुमार भूल नहीं पाए। तीन महीने बाद मानसून सत्र में भी बजट सत्र की छाया दिखी, जब अध्यक्ष की पहल पर आयोजित एक विशेष परिचर्चा का जदयू विधायकों ने बहिष्कार कर दिया था। इस में मुख्यमंत्री भी पहले की तरह दिलचस्पी नहीं ले रहे थे। इससे पहले विधान परिषद के स्थानीय निकाय के चुनाव में भी भाजपा पर जदयू के उम्मीदवारों को हराने का आरोप लगाया गया था। हालांकि ऐसा ही आरोप कुछ सीटों पर भाजपा ने भी जदयू पर लगाया था। हाल के दिनों में बढ़ी एनआइए की अति सक्रियता को भी राज्य सरकार के कामकाज में हस्तक्षेप माना जा रहा है। राष्ट्रपति चुनाव में चिराग पासवान की भाजपा से बढ़ी नजदीकी भी जदयू के जख्म को कुरेदने वाला साबित हो रहा है।

पहल हुई थी

भाजपा के शीर्ष नेतृत्व को नीतीश की नाराजगी की खबर थी। केंद्रीय मंत्री धर्मेंद्र प्रधान से पांच मई को अचानक नीतीश कुमार से मिलने पहुंचे। इस यात्रा की खबर भाजपा प्रदेश नेतृत्व को बाद में मिली। दूसरी बार 28 जून को दोनों की मुलाकात हुई। आधिकारिक तौर पर बताया गया कि प्रधान की दोनों यात्राएं राष्ट्रपति चुनाव के संदर्भ में थीं। लेकिन, देखा गया कि प्रधान की यात्रा के बाद बिहार के प्रभारी भूपेंद्र यादव का राज्य में आवागमन कम हो गया। नित्यानंद राय भी पहले की तुलना में संयत हो गए। चर्चा यह भी हुई कि प्रधान ने मुख्यमंत्री की नाराजगी को नोट किया। राष्ट्रपति चुनाव के बाद इसे दूर करने का भरोसा दिया। अब तक ऐसा कुछ नहीं हुआ। वैसे, मोर्चा संगठनों की बैठक में शामिल होने पटना आए गृह मंत्री अमित शाह और पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा ने दोहराया कि अगला लोकसभा और विधानसभा चुनाव जदयू के साथ लड़ा जाएगा। भाजपा ने नीतीश के एतराज पर अपने विधायकों को सांप्रदायिक मुद्दे पर बोलने से बचने की सलाह दी।

कोई पैकेज भी है क्या?

कोई कुछ खुल कर नहीं बोल रहा है। लेकिन, पैकेज की भी चर्चा हो रही है। एक चर्चा यह कि 2024 में नीतीश कुमार विपक्ष की ओर से प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार होंगे। बिहार की बागडोर तेजस्वी के पास रहेगी। महागठबंधन के साथ नीतीश की दोस्ती पर 2015 के विधानसभा चुनाव में जनता की मुहर लगी थी। 2024 के लोकसभा चुनाव में भी ऐसे ही परिणाम की आशा की जा रही है। राजद को सत्ता चाहिए तो वाम दल और कांग्रेस को भाजपा की हार ही में जीत का अहसास होगा। यह समीकरण भाजपा को कड़े फैसले लेने से रोक रहा है।

लाभ भी देख रही है भाजपा

यह नहीं कह सकते है कि खेल शुरू होने से पहले भाजपा हार मानने जा रही है। विकास, धर्म निरपेक्षता और बाकी चुनावी मुद्दा अपनी जगह पर है। लेकिन, राजद अध्यक्ष लालू प्रसाद बीते 30 वर्षों से स्थायी चुनावी मुद्दा रहे हैं। अंत अंत तक वोटों की गोलबंदी उनके पक्ष या विपक्ष में होती रही है। भाजपा उम्मीद कर रही है, नीतीश कुमार के बिना जब कभी वह चुनाव लड़ेगी, लालू विरोधी वोटों की इकलौती हकदार होगी। यह मामूली वोट नहीं है।