नई दिल्ली: उत्तर प्रदेश में 2022 के विधानसभा चुनाव से पहले समाजवादी पार्टी ने भगवान परशुराम के प्रति प्रेम जताकर सवर्ण वोट को साधने का प्रयास किया था, लेकिन अब शायद इस वर्ग पर उसका विश्वास कमजोर हुआ है। फिलहाल सपा की नजरें पिछड़े, दलित और अल्पसंख्यक (पीडीए) के गठजोड़ पर जा टिकी हैं।
पीडीए के बलबूते लड़ेंगे चुनाव
सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव ने स्पष्ट कर दिया है कि 2024 का लोकसभा चुनाव वह पीडीए के बलबूते लड़ना चाहते हैं। यहां उन्होंने प्रदेश की लगभग 40 लोकसभा सीटों पर प्रभाव रखने वाले सवर्णों की बात भले ही न की हो, लेकिन पिछले दिनों रामचरितमानस पर उनकी पार्टी के वरिष्ठ नेता स्वामी प्रसाद मौर्य की आपत्तिजनक टिप्पणियों पर अखिलेश की खामोशी को सवर्णों को ज्यादा तवज्जो नहीं देने की रणनीति से ही जोड़कर देखा जा रहा है।
आम चुनाव में भाजपा को सत्ता से बेदखल करने के लिए कई विपक्षी दल हाथ मिलाने को तैयार हैं। 23 जून को बिहार में विपक्षी दलों की महत्वपूर्ण बैठक भी प्रस्तावित है। उत्तर प्रदेश में भी भाजपा विरोधी एकजुटता की तस्वीर पेश करने के लिए अखिलेश इस बैठक में शामिल होने जा रहे हैं, लेकिन सर्वाधिक 80 लोकसभा सीटों वाले इस राज्य में दलों की कैमिस्ट्री में तमाम उलझे समीकरणों में खटाई पड़ने की आशंका बरकरार है।
एकला चलो के सिद्धांत पर बसपा
एकजुटता के नाम पर यहां प्रमुख दलों में सपा और कांग्रेस के अलावा कोई नहीं है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में कुछ प्रभाव राष्ट्रीय लोकदल का माना जा सकता है। बसपा फिलहाल एकला चलो के सिद्धांत पर है। वैसे अखिलेश का ताजा रुख कांग्रेस को एक और समझौते की ओर धकेलता नजर आ रहा है।
हाल ही में अखिलेश ने बयान दिया है कि भाजपा के नेतृत्व वाले राजग को वह पिछड़ा, दलित-अल्पसंख्यक वोट की ताकत से हराएंगे। उन्हें भरोसा है कि राज्य में भाजपा को 80 सीटों पर हराकर वह उसे केंद्र से बेदखल कर सकते हैं। राजनीतिक समीक्षक मानते हैं कि इस रणनीति से सफलता प्राप्त करना सपा या संभावित गठबंधन के लिए आसान नहीं होगा।
अखिलेश की चुप्पी पर सवाल
वजह यह कि सपा एमएलसी स्वामी प्रसाद रामचरितमानस पर पिछले दिनों काफी अशोभनीय टिप्पणियां कर चुके हैं। उस पर अखिलेश की चुप्पी का संदेश सवर्णों के बीच सही नहीं गया। प्रदेश की तीन दर्जन से अधिक लोकसभा सीटों पर 25 प्रतिशत आबादी के साथ सवर्ण प्रभावशाली भूमिका में हैं। वहीं, जिस दलित-पिछड़ा वोट पर सपा की नजर है, वह भी उसके हाथ से अभी काफी दूर है।
2014 के बाद से भाजपा को लगातार मिली विजय गवाही देती है कि उसका पिछड़ा वोटबैंक और मजबूत हुआ है। लाभकारी योजनाओं ने दलितों को भाजपा की तरफ काफी हद तक मोड़ा है। वैसे दलित वर्ग पर आज भी सबसे अधिक प्रभाव बसपा का ही माना जाता है। सवर्ण भाजपा के साथ लगातार हैं और उसके हाथ से पिछड़ा वोट खींचना सपा के लिए इतना आसान नहीं होगा। दलितों का साथ 2019 के लोकसभा चुनाव में अखिलेश को तब भी नहीं मिला था, जब मायावती ने उनके साथ गठबंधन कर मंच साझा किया था।
यही कारण रहा कि बसपा 2014 के मुकाबले शून्य से बढ़कर 10 पर पहुंच गई थी जबकि सपा पांच सीटों पर ही सिमट गई थी। इसके इतर, यदि बिहार की बैठक में सहमति बन गई और कांग्रेस ने सीट बंटवारे में कड़वा घूंट पीकर सपा से समझौता कर भी लिया तो उसके लिए सपा की सवर्णों को नजरअंदाज करने वाली वाली रणनीति पर चलना नुकसानदेह होगा, क्योंकि उसके पुराने वोटबैंक में दलित-मुस्लिमों के साथ सवर्ण ही प्रमुख रहा है।