लखनऊ: असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी एआइएमआइएम प्रदेश में सपा के लिए नई मुसीबत बन सकती है। सपा जिस ‘एम-वाई’ (मुस्लिम-यादव) समीकरण को अपना मजबूत आधार समझती थी, उसमें नगरीय निकाय चुनाव में बड़ी सेंधमारी हुई है। इस चुनाव में मुस्लिम मतदाता सपा से छिटक गए हैं।
उन्होंने बसपा, कांग्रेस व एआइएमआइएम को वोट देकर यह संदेश देने की कोशिश की है कि अब मुस्लिम मतदाता एक खूंटे में बंधकर नहीं रहने वाले हैं। उन्हें जहां भी बेहतर विकल्प नजर आएगा उसके साथ चले जाएंगे।
ऐसे में वर्ष 2024 के लोकसभा चुनाव में उतरने से पहले सपा को नए वोट बैंक को जोड़ने के साथ ही अपने परंपरागत वोट बैंक को सहेजने के लिए नए सिरे से रणनीति बनानी होगी। अगले वर्ष होने वाले लोकसभा चुनाव से पहले हुए नगरीय निकाय चुनाव को उसका सेमीफाइनल माना जा रहा था।
शहरों की सरकार चुनने वाला यह चुनाव सपा को स्पष्ट संदेश देकर गया है। जिस ओवैसी को सपा उत्तर प्रदेश में बहुत हल्के से लेती थी उसने अब जड़ें जमानी शुरू कर दी हैं। सपा ओवैसी की पार्टी को इसलिए भी हल्के में लेती थी क्योंकि प्रदेश में अधिकतर मुस्लिम वोट उसे ही मिलता है।
वर्ष 2022 के चुनाव में तो एकतरफा मुस्लिम वोट साइकिल को ही मिला। हालांकि ओवैसी की पार्टी इन सबकी परवाह किए बगैर मुस्लिम मतदाताओं के बीच अपनी पैठ बनाने में जुटी रही। एआइएमआइएम के कारण ही सपा मेरठ नगर निगम के चुनाव में मेयर पद पर तीसरे स्थान पर रही। नगर पालिका व नगर पंचायत की भी कई सीटों पर उसे हार का सामना करना पड़ा।
ओवैसी की पार्टी ने संभल, हाथरस की सिकंदराराऊ व कानपुर की घाटमपुर नगर पालिका परिषद में अध्यक्ष पद पर जीत दर्ज की है। बरेली की ठिरिया व मुरादाबाद की कुंदरकी नगर पंचायत अध्यक्ष भी एआइएमआइएम ने जीत लिया है। मेरठ नगर निगम में 11 पार्षद सहित गाजियाबाद, बरेली व फिरोजाबाद नगर निगमों में कुल 19 पार्षद जीते हैं। 33 नगर पालिका सदस्य व 23 नगर पंचायत सदस्य भी उसके जीते हैं। यह परिणाम इस बात का संकेत हैं कि ओवैसी की पार्टी ने मुस्लिम मतदाताओं में अपनी जगह बनानी शुरू कर दी है। मुस्लिम मतदाताओं में बिखराव ही सपा के लिए खतरे की घंटी है।
यहां पर चूकी सपा
- प्रत्याशियों की चयन प्रक्रिया ठीक नहीं थी, ऐन मौके पर टिकटों को बदलना पड़ा भारी
- भाजपा की तरह सपा चुनाव प्रचार में नहीं अपना पाई आक्रामक रुख
- मुख्यमंत्री ने 50 जनसभाएं कीं किंतु अखिलेश गिने-चुने शहरों में छह-सात सभाओं व रोड शो तक रहे सीमित
- पार्टी मुखिया अपने नेताओं के मनमुटाव दूर करने में रहे विफल, स्थानीय स्तर पर खींचतान का हुआ नुकसान
- भाजपा आक्रामक प्रचार करती रही जबकि सपा इस आस में रही कि जनता खुद सरकार के विरोध में उसके प्रत्याशियों को जिताएगी।