नई दिल्ली, आप चाहे देश के किसी भी शहर में हों, शुक्रवार को बाबा साहेब भीमराव आंबेडकर की जयंती के अवसर पर मनाए गए समारोह और उल्लास को शायद हर बार से ज्यादा अनुभव किया होगा। छोटे बड़े हर राजनीतिक दलों में बढ़ी रुचि और बढ़-चढ़कर उसे प्रदर्शित करने का प्रयास भी देखा होगा। आखिर क्यों?
हर राजनीतिक दल को दलित समाज के समर्थन की भूख
दरअसल, जो दलित समाज कुछ अरसे पहले तक सिर्फ पहचान की राजनीति करने वाले कुछ नेतृत्व के साये में जी रहा था, वह अब पूरे देश की राजनीति की धुरी बनने लगा है। सामाजिक आर्थिक विकास में बराबरी की हिस्सेदारी करने लगा है और सशक्तीकरण की सीढ़ी चढ़ने लगा है। पहचान के दायरे से आगे बढ़कर अब वह हिस्सेदारी लेने और देने की स्थिति तक पहुंचने लगा है। ऐसे में हर राजनीतिक दल को उनके समर्थन की भूख है।
परिवार और खुद के सशक्तिकरण पर टिकी थी पहचान
दलित समाज देश की आबादी में लगभग 17-18 प्रतिशत हिस्सा रखता है। 2014 से पहले ये लोग बसपा, लोजपा, रिपब्लिकन पार्टी जैसे कुछ दलों की सीमा में बंधे थे, जो पहचान की आधार पर था, लेकिन धीरे-धीरे यह परत खुलती चली गई कि सामाजिक न्याय के नाम पर जो पहचान खड़ी की गई थी, वह वास्तव में न्याय नहीं, बल्कि केवल परिवार और खुद के सशक्तीकरण पर टिकी थी।
मोदी सरकार ने दलित समाज को अधिकार संपन्न बनाया
दूसरी तरफ, नरेन्द्र मोदी सरकार ने शासन प्रक्रिया और समाज कल्याण की योजनाओं के जरिये अंतिम पायदान पर खड़े दलित समाज को अधिकार संपन्न बनाया। वहीं, संविधान निर्माता आंबेडकर को पहली बार देश निर्माता के रूप में खड़ा किया और वह इज्जत दी, जो आज तक किसी भी सरकार ने नहीं दिया था।
पहली बार संयुक्त राष्ट्र में मनाई गई बाबासाहेब की जयंती
पीएम मोदी ने यह भी प्रयास किया कि पहली बार संयुक्त राष्ट्र में बाबा साहेब की जयंती मनाई गई। इस पूरे प्रयास का असर राजनीतिक रूप से भी दिखा। मायावती जहां अपने ही गढ़ में हाशिये पर खड़ी हो गईं, वहीं भाजपा के खाते में सबसे ज्यादा दलित सांसद, विधायक, जनप्रतिनिधि दिखने लगे हैं। इस बीच कुछ मुद्दों पर विपक्षी दलों ने दलित समाज के बीच बढ़ रही भाजपा की पैठ को कमजोर करने के लिए आरक्षण व दूसरे मुद्दों को तूल दिया, लेकिन चुनावी राजनीति में इसका असर नहीं दिखा।
राजनीतिक दलों को डरा रहा दलित समाज का बदला आयाम
दलित समाज का बदला आयाम ही अब राजनीतिक दलों को डरा रहा है। हर छोटा बड़ा दल इसका एक हिस्सा चाहता है और खुद को उनके साथ खड़ा दिखाना चाहता है। चुनाव की दहलीज पर खड़े तेलंगाना के मुख्यमंत्री के चंद्रशेखर राव भी इसमें कूद पड़े हैं। सपा प्रमुख अखिलेश यादव ने कांशीराम की प्रतिमा का अनावरण कर दलित समाज को जोड़ने की कोशिश की तो उनकी पार्टी के ही स्वामी प्रसाद मौर्य ने रामचरित मानस को दलितों के खिलाफ बताकर उनको भ्रमित करने की कोशिश की।