की भाषा में अक्सर ये बोला जाता है की व्यक्ति प्रेम में पागल और अँधा हो जाता है , सही गलत की समझ धूमिल हो जाती है। इसी संदर्ब में कालिदास और विधोत्तमा का उल्लेख आता है की कालिदास उनसे मिलने भीषण वर्षा में लाश पर बैठ कर आ गए और सांप को रस्सी समझ कर उसे पकड़ कर विधोत्तमा के कमरे तक पहुंच गए। अब प्रश्न ये उठता है की क्या ये प्रेम था या भ्रम ?

भ्रम एक मानसिक रोग है। यह ज्ञान, बोध या उपलब्धि के व्यतिक्रम का विकार है। किसी सत्य वस्तु में असत्य वस्तु का भान या ज्ञान होना भ्रम कहलाता है।जो पदार्थ जैसा है, वैसा न दिखलाई देकर दूसरा ही मालूम पड़े, जैसा की कालिदास के साथ हुआ, लाश उन्हें लकड़ी लग रही थी और सांप उन्हें रस्सी होने का भान करा रहा था। 

भ्रम का इलाज नहीं करने से ये आगे चलकर विभ्रम या अवस्तुबोधन करा देगा। यह भ्रम के आगे की स्थिति है, जिसका कोई आधार नहीं होता। यह अस्तित्वविहीन मिथ्या ज्ञान है। कई बार रोगी को विभिन्न प्रकार की धमकी, तिरस्कार अथवा प्रशंसा भरी ध्वनियाँ सुनाई देती हैं जो अवास्तविक एवं अस्तित्वविहीन होती हैं। यहाँ तक की रोगी को दिव्य, अलौकिक तथा चमत्कारपूर्ण दृश्य दिखलाई देते हैं, जो मिथ्या होते हैं। कई बार फूलो का गन्ध मालूम होना जबकि वस्तुतः ये अस्तित्वविहीन होती है। कई बार रोगी को कृमियों के शरीर पर रेंगने या उसके स्पर्श का अनुभव होता है जो पूर्णतः मिथ्या है। 

जब किसी व्यक्ति में भ्रम का स्थिर निवास होता है, तो उसे 'संविभ्रम' कहते हैं। यह एक प्रकार की प्रवृद्ध भ्रमावस्था है। रोगी को सदैव यह भ्रम रहता है कि कोई भोजन में विष मिलाना चाहता हो। इसमें प्रमुख्य समस्या ये होने लगती है की रोगी का भ्रम स्थायी होता है और अपने अलग-बगल की प्रत्येक वस्तु को वह खतरनाक समझता है। रोगी किसी पर विश्वास नहीं करता है और सबको सन्देह की दृष्टि से देखता। कल्पना लोक में विचरण करना और दूसरों को सजा देने के विषय में सोचना एहि इनका उदेश रह जाता है।विरोधाभाष और अपनी हत्या का भ्रम बराबर बना रहता है।

जब रोगी को गलत धारणा हो और किसी भी प्रमाण से सही नहीं सिद्ध किया जा सके तो रोगी व्यामोह - मिथ्या विश्वास-संघर्ष से पीड़ित होता है । यह एक प्रकार का उन्माद जैसा रोग है, जो अनेक प्रकार के मानसिक रोगों में एक लक्षण के रूप में पाया जाता है। रोगी किसी भी क्षेत्र में सर्वोत्कृष्ट, सर्वोत्तम और महानतम होने का दावा करता है और यही उसका मिथ्याविश्वास संघर्ष कहा जाता है। ईर्ष्या, द्वेष, काम, क्रोध, लोभ, महान अहंकार, अपने बल तथा धन-जन का अपार दर्प रहता है। किसी क्षेत्र में सफलता मिल जाने पर ऐसे व्यक्ति के मानस पटल पर मिथ्या विश्वास का जन्म होता है।

ज्योतिष के जातक ग्रन्थों में मानसिक रोगों के विभिन्न वर्गों के नाम आयुर्वेद में प्रयुक्त रोगों के नामों से भिन्न है, तथापि जातक ग्रन्थों में उपरोक्त सभी रोगों के लक्षण तथा योग प्राप्त हो जाते हैं। जातक ग्रन्थों में उपरोक्त रोगों के विभिन्न लक्षणों का उल्लेख है जैसे—मतिभ्रम, हीन बुद्धि, जड़ बुद्धि तथा चंचल बुद्धि आदि। सभी क्षण उपरोक्त रोगों से ही सम्बन्धित हैं।

ज्योतिष के महान ग्रन्थों में मानसिक रोगो के योगा योग बताये गए है। 

मतिभ्रम का योग तब बनता है जब बुध और चन्द्रमा संयुक्त होकर केन्द्र भावों में स्थित हों अथवा दोनों पापग्रह के नवांश में स्थित हो तो जातक बौद्धिक विश्रम से पीड़ित होता है। 

हीन बुद्धि के योग - यदि लग्न में चन्द्रमा स्थित हो तथा उसे शनि व मंगल देखते हों तो हीनबुद्धि अर्थात कम बुद्धि वाला होता है। यदि पंचमेश क्रूर षष्ट्यंश में हो तो मनुष्य हीनबुद्धि होता है। शनि, मंगल व सूर्य-ये तीनों यदि चन्द्रमा को देखते हों तो मनुष्य मूर्ख होता है। यदि बृहस्पति पंचम स्थान में स्थित हो तो मनुष्य की स्मरणशक्ति का नाश होता है।

जड़बुद्धि के योगों - चन्द्रमा, शनि व गुलिक-यदि ये तीनों केन्द्र स्थानों में हो तो मनुष्य जड़बुद्धि होता है। धनस्थान में गुलिक व सूर्य स्थित हो तथा उन्हें पापग्रह देखते हों या शनि व तृतीयेश दोनों एक साथ हो तो। यदि द्वितीयेश पापग्रहों से युक्त होकर दशम स्थान में स्थित हो तो मनुष्य जनसमुदाय के सामने जड़बुद्धि हो जाता है अर्थात् लोगों के सामने उसकी बुद्धि ठीक कार्य नहीं करती है। तृतीयेश यदि राहू के साथ हो तो भी या पंचम स्थान में शनि लग्नेश होकर स्थित हो तथा पंचमेश को शनि देखता हो तथा पंचमेश पापग्रहों से युत हो तो भी जड़बुद्धि होता है।गुलिक व शनि-दोनों पंचम स्थान में हो तथा शुभग्रहों का कोई सम्बन्ध वहाँ न हो तो मनुष्य जड़बुद्धि होता है।

चंचल वृद्धि के योग - सूर्य व चन्द्रमा लग्न या त्रिकोण स्थानों में कहीं हो तो मनुष्य चंचल बुद्धि वाला होता है यहाँ तक की यदि बुध द्वितीय स्थान में स्थित हो तो भी मनुष्य चंचल बुद्धि वाला होता है। यदि बुध द्वितीय स्थान में स्थित हो तथा वह निर्बल हो और पाप ग्रह उसे देखते हों तो मनुष्य की विचारधारा अस्थिर होती है अर्थात् वह अस्थिर मन वाला होता है।

“सुतेमन्दे लग्नेश मन्द्रदृष्टे सुतेशे सपापे जड़ः।"

अर्थात - 1. पंचम भाव में शनि का स्थित होना, 2. शनि का लग्नेश होना, 3. पंचमेश का शनि द्वारा दृष्ट होना 4. पंचमेश का पाप ग्रहों से युक्त होना।सूत्र के रचनाकार के मत के अनुसार, यदि किसी जन्म कुंडली में ये चारों स्थितियाँ हैं तो जातक जड़बुद्धि होगा ।

विभिन्न मानसिक रोगियों की जन्म कुंडलियों की समीक्षा करने के उपरान्त यह निष्कर्ष प्राप्त हुआ कि यदि किसी जन्म कुंडली में एक ही स्थिति अर्थात पंचम भाव में शनि का स्थित होना पाया जाता है तो भी रोग की उग्रता २५ प्रतिशत होती है। इसी प्रकार दो स्थितियों में ५० प्रतिशत, तीन स्थितियों में ७५ प्रतिशत तथा चार स्थितियों में शत-प्रतिशत उग्रता होती है। उन्माद तथ जड़बुद्धि आदि रोग उग्र लक्षणों वाले रोग हैं, जबकि भ्रम, विभ्रम तथा व्यामोह आदि रोग हल्के तथा मध्यम उग्रता वाले रोग हैं, जो योग के एक या दो स्थितियों की दशा में देखे गए हैं। 

उपाय - जिस भी गृह के कारन ये परिस्थिति उत्पन हो रही है उनका वैदिक मंत्र का उच्चारण करे। हर गृह के जप संख्या निर्धारित है तो उतना जप करे। जप से पूर्व शकलप अवस्य करे।