राजस्थान में हाल ही हुए उपचुनाव में कुछ ऐसी घटनाएं हुईं, जिन्होंने राजस्थान की राजनीति के उन पहलुओं को उजागर किया जो यहां की सियासी पहचान से थोड़ी अलग है. राजस्थान की राजनीति में ताकतवर सामुदायिक राजनेताओं का बोलबाला रहा है. ये नेता समाज के पिछड़े तबकों से उठे और उन्होंने मरुप्रदेश के सियासी दंगल में लम्बे समय तक खूब धाक जमाई.उनमें परसराम मदेरणा, शीशराम ओला, भैरों सिंह शेखावत, नाथूराम मिर्धा जैसे आला कद के नेता शामिल थे. उसके बाद हनुमान बेनीवाल, किरोड़ी लाल मीणा जैसे मज़बूत नेताओं ने इस सिलसिले की कमान संभाली. लेकिन, धीरे- धीरे राजनीति बदली ज़्यादा से ज़्यादा लोग राजनीति में आने लगे, तब ये सियासी छत्रप धीरे-धीरे कमज़ोर होने लगे. हाल ही में हुए उपचुनाव में हनुमान बेनीवाल की पत्नी कनिका बेनीवाल की हार और किरोड़ी लाल मीणा के भाई जगमोहन मीणा की हार यह दिखाती है कि मरुप्रदेश की सियासी सरज़मीं पर कई तरह के राजनीतिक ट्रेंड उभर रहे हैं. जहां मॉनोपोली को ज़बरदस्त चुनौती मिल रही है. हनुमान बेनीवाल का परिवार 16 सालों से खींवसर सीट पर जीतता आ रहा था. खींवसर और बेनीवाल कई सालों से एक दूसरे के पूरक बने रहे, लेकिन 2024 का उपचुनाव उनके इस सियासी रथ को ब्रेक लगा गया. हालांकि, राजनीति के जानकार इसे कोई अच्छा ट्रेंड नहीं मानते, क्योंकि पिछले 6 साल में यह पहली बार होगा, जब विधानसभा में बेनीवाल की पार्टी राष्ट्रीय लोकतांत्रिक पार्टी का कोई भी विधायक नहीं होगा. क्योंकि इतना तो है कि कांग्रेस- भाजपा की द्विध्रुवीय दलीय सत्ता में ऐसे छोटे दल कहीं न कहीं लोकतान्त्रिक व्यवस्था के लिए बेहतर ही होते हैं. 2018 विधानसभा चुनाव से पहले बनी RLP ने अपने पहले चुनाव में 3 विधायक असेंबली में पहुंचाए थे. लेकिन महज़ 6 साल बाद ही वो सदन से ग़ायब हो गए. यह सियासी किस्सा यह बताता है कि राजस्थान में तीसरे मोर्चे के लिए कितनी कम जगह है. और अगर ऐसा कुछ बन भी जाता है, तो उसका पूरे प्रदेश में क्या प्रभाव होता है ? वहीं, दूसरी और लोकसभा में कुछ सीटों पर हार की ज़िम्मेदारी लेकर मंत्रिपद से इस्तीफा देने वाले किरोड़ी लाल मीणा के भाई जगमोहन मीणा की दौसा से हारने पर भी खूब चर्चा हुई. इसकी राजनीतिक खुसुर-फुसुर आज भी जारी है. इसमें कोई शक नहीं कि किरोड़ी लाल मीणा लम्बे समय तक मीणा जाति के सर्वमान्य नेता रहे हैं. लेकिन, राजनीति के जानकार मानते हैं साल दर साल बदले सियासी मौसम ने उनकी राजनीतिक सेहत और बोलबाले को कमजोर किया है. और यह हार उसका प्रमाण दे रही है. इसमें कोई शक नहीं कि किरोड़ी लाल मीणा लम्बे समय तक मीणा जाति के 'सर्वमान्य' नेता रहे हैं. लेकिन, राजनीति के जानकार मानते हैं साल दर साल बदले सियासी मौसमों ने उनकी राजनीतिक सेहत और बोलबाले को कमजोर किया है. यह सच है कि दौसा सीट कांग्रेस का गढ़ रही है, लेकिन इसी सीट से किरोड़ी लाल मीणा बिना कांग्रेस और भाजपा के सांसद रहे हैं. इस उपचुनाव में यह तो तय था कि अगर जगमोहन मीणा हारे तो किरोड़ी लाल मीणा के राजनीतिक करियर के लिए यह सबसे बड़ा झटका होगा. क्योंकि यह चुनाव किरोड़ी के लिए जीतना क्यों ज़रूरी था, इसका अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि अपनी दबंग छवि और आक्रामक प्रचार के लिए जाने जाने वाले किरोड़ी को कमंडल लेकर वोट की 'भिक्षा' मांगना पड़ गया था. इस हार का दुःख क्या है इसका अंदाजा उनके ट्वीटर पर लिखी गईं इन पंक्तियों से साफ़ ज़ाहिर होता है, ''गैरों में कहां दम था, मुझे तो सदा ही अपनों ने ही मारा है''