श्री गोकरुणा चातुर्मास आराधना महोत्सव

प्रत्येक विरक्त परंपरा और संतों के स्थान में भी सत्संग की अत्यंत अनिवार्य मर्यादा है : मलूक पीठाधीश्वर

रेवदर। श्री गोकरुणा चातुर्मास आराधना महोत्सव में चल रही श्री वेदलक्षणा गोमहिमा श्री भरत चरित्र कथा को संबोधित करते हुए मलूक पीठाधीश्वर राजेंद्रदास जी महाराज ने कहा कि प्रत्येक विरक्त परंपरा और संतों के स्थान में भी सत्संग की अत्यंत अनिवार्य मर्यादा होती है। सत्संग में बैठना ही पड़ेगा यह पक्का नियम होता है। फिर ऐसे ऐसे संतों का निर्माण होगा जिसे वाणी से व्यक्त नहीं कर सकते। जिस काल में पूज्य श्री रामायणजी का प्रवचन श्रीसुदामा कुटी में चलता था। उस काल में ऐसे ऐसे संत आए, जो सत्संग से आकर्षित होकर अंतिम क्षण तक वृंदावन में रह गए। महाराज जी ने कहा कि प्रत्येक गृहस्थ और विरक्त साधु सन्यासी के यहां यह पक्की मर्यादा होनी ही चाहिए कि कम से कम प्रतिदिन 1 घंटे का सत्संग अवश्य होना चाहिए। परम श्रद्धेय रामसुखदास जी महाराज के सत्संग में ऐसी मर्यादा थी कि साधुओं से कुछ न कुछ गलती हो ही जाती थी क्योंकि क्योंकि हम सब मानव जीव है, इसके बावजूद स्वामी जी कभी यह नहीं कहते थे कि उसे निकाल दो, गलती होने पर माफ कर देते थे। बस एक बात पूछते थे कि सत्संग में आता है या नहीं, आता है तो कोई बात नहीं जरूर सुधर जाएगा। अगर अपराध भी करता है सत्संग में नहीं बैठता, तो स्वामी जी हाथ जोड़ लेते और बोल देते पधारो। महाराज जी कहते थे कि गलती बुरी चीज नहीं होती है। मनुष्य से ही भूल होती है, अगर वो सत्संग में बैठने लग गया है, उसके सुधार की संभावना है। यदि वो सत्संग में नहीं बैठता ही तो उसकी सुधार की संभावना कैसे होगी। मलूक पीठाधीश्वर के कहा कि दुख इस बात का है, धीरे-धीरे सत्संग का यह क्रम भी शिथिल होता जा रहा है। हम सब उत्सव, महोत्सव, भोज और भंडारे तक सीमित रह गए। हमारे अंदर ना तो स्वाध्याय के प्रति और ना ही नित्य सत्संग के प्रति आग्रह रह गया। उसके कारण हमारे व्यवहारिक जीवन में अनेक विकृतियों आ रही है। कथा में सुरजकुंड के पूज्य अवधेश चैतन्य जी महाराज, पूज्य महंत चेतनानंदजी महाराज डण्डाली, सुधानंद जी महाराज, रविंद्रानंद जी महाराज, बलदेवदास जी महाराज, गोवत्स विट्ठल कृष्ण जी महाराज, गोविंद वल्लभदास महाराज, ब्रह्मचारी मुकुंद प्रकाश महाराज, पूज्य श्री गोडदास जी महाराज वृंदावन, राम मोहनदास जी महाराज, 121 दंडी स्वामी सहित भारतवर्ष के सैकड़ों त्यागी तपस्वी ऋषि मुनि मौजूद रहे।