ओडिशा के पुरी में हर साल निकलने वाली रथयात्रा जितनी प्रसिद्ध है, उससे भी कहीं अधिक रोचक है यहां श्री मंदिर का इतिहास और उसमें भगवान जगन्नाथ के विराजने की कथा. पुरी का यह क्षेत्र पुराणों में सप्त पुरियों में से एक है, जिसे स्कंद पुराण में पुरुषोत्तम क्षेत्र, धरती का वैकुंठ तीर्थ और श्रीकृष्ण के शरीर के नील मेघ श्याम रंग के कारण नीलांचल कहा जाता है. माना जाता है कि जगन्नाथ भगवान स्वयं ही श्रीकृष्ण हैं. पुरी के जगन्नाथ धाम में श्रीकृष्ण भगवान नीलमाधव के नाम से विराजमान हैं. जगन्नाथ पुरी की ऐतिहासिक कथाओं और किंवदंतियों की मानें तो पहले भगवान नीलमाधव का विग्रह पुरी से मीलों दूर किसी जंगल में भील कबीले के पास था. जिसका मुखिया विश्ववसु था.
ओम धगाल - पूर्व प्रदेश कार्यकारिणी सदस्य भाजपा युवा मोर्चा
ओम धगाल की और से हिंडोली विधानसभा क्षेत्र एवं बूंदी जिले वासियों को रौशनी के त्यौहार दीपावली की हार्दिक बधाई व शुभकामनाएं
यह कबीला कई पीढ़ियों से नीलमाधव विग्रह की पूजा करता आ रहा था. कहते हैं कि यह भील कबीला उसी जरा नाम के बहेलिये का वंशज था, जिसने श्रीकृष्ण के पैर में तीर मारा था और इसके बाद श्रीकृष्ण गोलोक धाम को चले गए थे. धरती पर मौजूद उनके पार्थिव शरीर का अंतिम संस्कार अर्जुन ने श्रीकृष्ण के एकमात्र जीवित बचे पोते वज्रनाभ से कराया और फिर द्वारिका की सभी स्त्रियों को लेकर हस्तिनापुर लौट आए. उधर, श्रीकृष्ण का सारा शरीर तो जल गया, लेकिन हृदय बचा रह गया. जरा बहेलिया उसी हृदय को ले आया और कृष्ण मानकर उसे विग्रह स्वरूप में स्थापित कर उसकी पूजा करने लगा. इस पूजा को वह अपने पाप का प्रायश्चित समझता था, जो उससे अनजाने में हुआ था. जरा के वंशज इसी विग्रह की पूजा करते आ रहे थे, जिसे विद्यापति विश्ववसु से चुराकर ले आया था.
पुरी के श्रीमंदिर में विग्रह की स्थापना की तैयारियां हो रही थीं. राजा ने सोचा कि सभी लोगों को नीलमाधव के दर्शन होने चाहिए, इसलिए उसने स्थापना से पहले लोगों में मुनादी करवा दी कि वह भगवान नीलमाधव के दर्शन कर लें. सारा नगर उमड़ आया, लेकिन नीलमाधव का नीला प्रकाश इतना तेज था कि कोई उसे थोड़ा सा भी देख न सका. राजा बहुत दुखी हुआ कि अगर मंदिर में विग्रह की स्थापना कर भी दी, तब भी कोई इसके दर्शन नहीं कर पाएगा. अब वह एक बार फिर भगवान की शरण में था कि वह उसे कोई मार्ग दिखाएं. तब इस बार भगवान नीलमाधव ने उन्हें खुद स्वप्न में दर्शन दिए और कहा, इस मंदिर में मेरी अलौकिक प्रतिमा की स्थापना करो, कल सागर तट पर तुम्हें एक लकड़ी का कुंदा बहता मिलेगा. उसे ले आना. इसीसे मेरा मंदिर विग्रह बनेगा.
राजा अपने परिवार के साथ समुद्र तट पर पहुंचा तो उसे वहां एक लकड़ी का बड़ा कुंद तट पर तैरता मिला. राजा ने सैनिकों को उसे खींच लाने का आदेश दिया, लेकिन कुंदा अपनी जगह से हिला भी नहीं. राजपरिवार ने भी प्रयास किया, लेकिन सब असफल. तब राजा ने हनुमान जी को याद किया और उनसे कुंदा ले चलने की प्रार्थना की. हनुमान जी ने कहा, यह कुंदा राजपरिवार के पाप के बोझ तले दबा है, ऐसे नहीं हिलेगा. पहले अपने पाप का प्रायश्चित करो. राजा बहुत सोचने-विचारने लगा कि आखिर ऐसा क्या पाप हो गया जो कि मंदिर निर्माण में बाधा बन रहा है, लेकिन हनुमान जी की बात छोटे भाई विद्यापति की समझ में आ गई. वह इस विग्रह को चोरी से लाया था, उससे भी बड़ा विश्वास घात उसने पत्नी से किया था. उसने राजा से सारा सच बताया.
राजा ने उससे कहा कि यह तो वाकई पाप है. अगर इस तरह श्रीमंदिर बन भी जाता तब हम इसके पुण्य के भागी नहीं थे. उन्होंने विद्यापति से जल्दी ही भील कबीले की ओर ले चलने के लिए कहा और कहा कि विश्ववसु से मैं खुद क्षमा याचना करूंगा और तुम्हारी पत्नी को राजपरिवार की बहू के रूप में स्वीकार कर सम्मान के साथ लेकर आऊंगा. यह सुनकर विद्यापति के हृदय का भार हल्का हुआ और वह सभी उसी भील कबीले में पहुंचा. राजा ने विश्ववसु को समझाया और पुरी के मंदिर के रूप में अपने सपने की सारी कथा सुनाई. तब विश्ववसु ने कहा कि, हमने अपने पूर्वजों से हमेशा ही सुना है कि यह विग्रह धरोहर के रूप में ही हमारे पास है, सही समय पर यह विश्व के सामने प्रकट हो जाएगा. इसलिए ही हम इसे आजतक छिपाकर रखते आए थे, लेकिन नीलमाधव की इच्छा के विरुद्ध कोई नहीं जा सकता है. इस तरह विश्ववसु ने विद्यापति को क्षमा कर दिया और उनके साथ पुरी आ गया. ललिता भी राजपरिवार की बहू बनी और समय के साथ उसने एक पुत्र को जन्म दिया.
देशभर से कुशल कारीगर बुलाए गए, लेकिन कोई भी प्रतिमा निर्माण की प्रतिभा नहीं दिखा सका. कुछ ने कहा कि यह कुंदा बहुत मोटा है, इससे आकार में उभार नहीं आएगा, कुछ ने कहा कि वह सिर्फ पत्थर की कलाकारी जानते हैं, काष्ठ की बारीकियां नहीं. कुछ ने कोशिश भी की, लेकिन उनकी हथौड़ियां इस कुंदे पर जरा भी नहीं चल पाईं. राज परिवार में एक बार फिर सन्नाटा छा गया. प्रतिमाएं कैसे बनें, ये बड़ा सवाल था.
इसी सोच-विचार और परीक्षण में कुछ दिन बीत गए. एक दिन सूर्यास्त से ठीक पहले एक वृद्ध राजदरबार में पहुंचा. झुकी कमर, हाथ में लाठी, चेहरे पर झुर्रियां, सफेद दाढ़ी और कंधे पर एक झोला-गठरी, जिसमें से आरी बाहर झांक रही थी. इससे ये तो साफ पता चल रहा था कि यह बूढ़ा कोई काष्ठ का शिल्पकार है. पूछने पर उसने राजा को अपना परिचय दिया शिल्पकार के रूप में दिया और कहा कि मैंने बहुत सी काठ की आकृतियां बनाई हैं, लेकिन अब बस आखिरी बार भगवान की भी मूर्ति बना लूं तो मुझे मोक्ष मिल जाए. उसने राजा से जगन्नाथजी की प्रतिमाएं बनाने की इच्छा जाहिर की.
राजा ने सोचा कि यह खुद इतने वृद्ध और जर्जर हो चुके हैं, पता नहीं निर्माण कर भी पाएंगे कि नहीं, इसलिए राजा ने टालने की गरज से कह दिया कि ठीक है, आप प्रतिमा बनाना चाहते हैं तो पहले आपको परीक्षा देनी होगी. आंख पर पट्टी बांध लीजिए और खुद वहां चलकर जाइए, जहां प्रतिमा निर्माण के लिए काठ रखे हैं. बूढ़े शिल्पी ने बात मान ली और पट्टी बांधकर उसी कमरे की ओर चला जहां लकड़ी का वह कुंदा रखा हुआ था. चौखट पर रुककर बूढ़े शिल्पी ने कहा कि, यह वह कक्ष है न, इसमें ही तो रखा है लकड़ी का कुंदा. राजा और विद्यापति सोच में पड़ गए. विद्यापति ने पूछा कि आप सही जगह पहुंचे हैं, लेकिन आपने कैसे जाना. तब शिल्पी ने कहा कि, समुद्र में भीगी हुई लकड़ी की अलग ही महक होती है, जो आपके लकड़ी के दरवाजों-खिड़कियों किसी में से नहीं आ रही है. राजा उसकी इस बौद्धिक क्षमता का कायल हो गया, लेकिन अबकी बार विश्ववसु ने पूछा कि कुंदे से कितनी प्रतिमाएं बनेंगी. तब शिल्पी ने कहा कि इस कुंदे से चार प्रतिमाएं बनेंगी, एक तो जगन्नाथ जी, नाम के अनुसार ही नीले-काले बादलों के रंग के. दूसरी सुभद्रा, जो कि हल्दी-चंदन की तरह पीले रंग की होगी और तीसरी प्रतिमा बलभद्र की, जो न्याय की तरह शुद्ध सफेद होंगे. इसके अलावा चौथा सुदर्शन चक्र जो कि प्रभु का अस्त्र, उनकी शोभा और कालचक्र का प्रतीक भी बनेगा.
यह सुनकर राजा बहुत खुश हुआ और उसने उस शिल्पी को प्रतिमा बनाने की आज्ञा दे दी. प्रतिमा बनाने की आज्ञा मिलते ही अब उस शिल्पी ने अपनी भी शर्तें बताईं. उसने कहा कि मैं आज बल्कि अभी से प्रतिमा निर्माण शुरू करूंगा और ये प्रतिमाएं मैं 21 दिन में बना दूंगा. मेरी शर्त ये है कि इस 21 दिन की अवधि के दौरान ये निर्माण कक्ष पूरी तरह बंद रहेगा. कोई भी जरा भी विघ्न नहीं डालेगा. अगर किसी ने निर्माण के बीच में इस कक्ष को खोल दिया, तो मैं यहां से चला जाऊंगा, फिर ये प्रतिमाएं अधूरी रह जाएंगी और इन्हें अधूरी ही स्थापित करनी होगी.
दे चुका हूं, इसलिए तब तक इंतजार करते हैं. रानी उस समय तो मान गईं, लेकिन जब अगले दिन भी कक्ष से कोई आवाज नहीं आई तो उनसे रहा नहीं गया और रानी ने किवाड़ खोल दिए. अब जब उन्होंने अंदर देखा तो वहां कोई नहीं था. थीं तो सिर्फ जगन्नाथ, सुभद्रा और बलभद्र की अधूरी बनीं मूर्तियां. इस अधूरेपन की जो दिव्यता थी रानी उसे देखकर चकित हो गईं. राजा ने भी उन्हें देखा तो वह सम्मोहित हो उठा. फिर उसे शिल्पकार की शर्त याद आई कि अगर 21 दिन के पहले द्वार खुला तो इन्हीं अधूरी मूर्तियों को स्थापित करना होगा. राजा ने इसे प्रभु की इच्छा मानकर उन्हें श्रीमंदिर में स्थापित कर दिया.
कहते हैं कि मूर्तियों का निर्माण करने वाले वृद्ध शिल्पकार कोई और नहीं देवशिल्पी विश्वकर्मा थे. उन्होंने ही भगवान की आज्ञा पर इन प्रतिमाओं का निर्माण किया था और उनकी इच्छा के अनुसार ही उन अधूरी मूर्तियों को बनाया था. ये बिल्कुल वैसा ही स्वरूप था, जैसा कि द्वापर में नारद मुनि ने देखा था. जब रोहिणी मां से राधा और रासलीला की कथा सुनते हुए श्रीकृष्ण, बलभद्र और सुभद्रा के शरीर द्रव में बदल गए थे. जगन्नाथ पुरी के श्रीमंदिर में जगन्नाथ जी का यही स्वरूप विराजमान है.