नई दिल्ली। विपक्षी एकजुटता के लिए जो प्रयास हो रहे हैं, उसके लिए फिलहाल कांग्रेस का शीर्ष नेतृत्व भी गंभीर नजर आ रहा है। इसके नफा-नुकसान का पता तो 2024 में लोकसभा चुनाव परिणाम के बाद ही पता चलेगा, लेकिन खास तौर पर उत्तर प्रदेश में पार्टी के पुनरोद्धार के लिए यह गठबंधन जोखिम भरा साबित हो सकता है।
इन जगहों पर निष्क्रिय हो चुका है संगठन
सीमित सीटों पर चुनाव लड़ने का दुष्परिणाम देख चुके जमीनी कार्यकर्ता नहीं चाहते कि कांग्रेस यूं अपनी जमीन छोड़ती चली जाए, जिससे हाल आजमगढ़ और मैनपुरी जैसा हो जाए, जहां लंबे समय से चुनाव न लड़े जाने के कारण संगठन लगभग निष्क्रिय हो चुका है।
UP में तीन दशक से सत्ता से बाहर कांग्रेस
सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में कांग्रेस तीन दशक से सत्ता से बाहर है। वर्तमान में 80 लोकसभा सीटों में से सिर्फ एक रायबरेली से सोनिया गांधी पार्टी की सांसद हैं और 403 विधानसभा सीटों में से सिर्फ दो विधायक हैं। पार्टी प्रदेश में कमजोर तो वर्षों से है, लेकिन पहला तगड़ा झटका 2014 के लोकसभा चुनाव में मोदी लहर से लगा और फिर 2017 के विधानसभा चुनाव से गिरावट तेज हो गई।
दरअसल, 2017 में भाजपा को सत्ता में आने से रोकने के लिए पार्टी ने चुनावी रणनीतिकार पीके का सहयोग लिया। पीके ने अपने हिसाब से रणनीति बनाई। चुनाव प्रचार अभियान जोरशोर से चला।
राहुल गांधी की खाट सभाओं में जिस तरह से भीड़ जुटी, उससे कांग्रेस कार्यकर्ता उत्साहित नजर आने लगे, लेकिन आखिरकार 2017 में कांग्रेस ने कार्यकर्ताओं की इच्छा को नजरअंदाज कर समाजवादी पार्टी से गठबंधन कर लिया। कांग्रेस ने मात्र 114 सीटों पर चुनाव लड़ा। उसका दुष्परिणाम यह रहा कि 2012 के मुकाबले सीटें 28 से घटकर सात तो वोट प्रतिशत 11.63 प्रतिशत से सिमटकर 6.25 प्रतिशत पर आ गया।
वोट प्रतिशत में भी गिरावट दर्ज
कार्यकर्ता मानते हैं कि उसी गठबंधन का असर रहा कि प्रियंका द्वारा लगातार मेहनत के बावजूद संगठन फिर उस तरह ऊर्जाकृत नहीं हो सका, जिसका खामियाजा 2019 में सिर्फ एक संसदीय सीट पर पार्टी के सिमट जाने के रूप में उठाना पड़ा और फिर 2022 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के सिर्फ दो प्रत्याशी ही विधानसभा पहुंच सके। वोट प्रतिशत भी 6.25 प्रतिशत से घटकर 2.33 प्रतिशत पर आ गया।