नई दिल्ली, सत्ताशीर्ष से देश के अंतिम छोर पर बैठे हुए आमजन तक जब भावना, समरसता और प्रेम का सेतु बनता है, तभी लोकतंत्र की परिभाषा चरितार्थ होती है। ओडिशा में मयूरभंज में एक गांव के छोटे से घर से निकलकर दिल्ली में रायसीना हिल तक की यात्रा से राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मु ने लोकतंत्र की जो छवि गढ़ी है, अब वह उसमें सहजता, सरलता और समानता के रंग भर रही हैं। फिर चाहे बात हिंदी प्रेम की हो, दीपोत्सव पर खुशियों की मिठास की या फिर अमृत उद्यान में आने वाले आमजन से प्रेमभरी भेंट की।
दृढ़ता से जीवन के थपेड़ों से लड़कर देश की पहली आदिवासी महिला राष्ट्रपति बनने वाली द्रौपदी मुर्मु की आज जन्मतिथि है। लोकतंत्र की जननी कहे जाने वाले भारत के सबसे बड़े संवैधानिक पद पर संघर्षशील और विचारशील नारी के नेतृत्व में देश और राष्ट्रपति भवन एक वर्ष से गर्वानुभूति कर रहा है।
द्रौपदी मुर्मु अबतक के राष्ट्रपतियों से अलग हटकर हैं, इसका अहसास सबसे पहले राष्ट्रपति भवन के कर्मचारियों ने किया। मौका था मुर्मु के राष्ट्रपति बनने के बाद पहली दीपावली का। राष्ट्रपति भवन की रसोई में मिठास तैयार की जा रही थी। छोटी दीपावली से एक दिन पहले राष्ट्रपति रसोई में जाकर तैयारियों का जायजा लेती हैं। उन्हें बताया जाता है कि ये मिठाइयां सभी वरिष्ठ अधिकारियों को उपहार में दी जाएंगी।
मुर्मु प्रश्न करती हैं कि सिर्फ अधिकारियों को? यह सिर्फ एक सवाल नहीं था, बल्कि समानता के अधिकार का भाव था। थोड़ी ही देर में राष्ट्रपति भवन के हर कर्मचारी निजी सचिव से लेकर माली, सफाई कर्मचारियों तक को मिठाई बांटने का संदेश आता है। सभी कर्मचारियों के लिए चार हजार किलो मिठाई तैयार की जाती है जिसे राष्ट्रपति खुद बांटती हैं। होली पर बुखार से पीड़ित होते हुए भी राष्ट्रपति ने परंपरा को तोड़ते हुए राष्ट्रपति भवन के सभी कर्मचारियों के साथ गुलाल, अबीर खेला।
क्यों न बोलूं हिंदी, मुझे इससे प्रेम है
20 जून 1958 को जन्मीं राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मु का हिंदी के प्रति प्रेम उनके संबोधन में झलकता है। अपने इसी प्रेम के चलते वह कई बार लिखित संबोधन से इतर बातें भी कह जाती हैं। उन्हें ऐसा न करने की सलाह भी दी गई, लेकिन वह कहती हैं कि क्यों न बोलूं? मुझे हिंदी से प्रेम है। उनके हिंदी प्रेम से राष्ट्रपति भवन का पुस्तकालय भी पुष्पित पल्लवित है। पुस्तकालय हिंदी की किताबों से पहले की अपेक्षा समृद्ध हुआ है। यहां एक शेल्फ का विस्तार संस्कृति, साहित्य की पुस्तकों के रूप में हुआ है।
सरलता और सहजता की प्रतिमूर्ति
राष्ट्रपति बनने के बाद जब वह ओडिशा के मयूरभंज के सुदूर में स्थित अपने गांव पहुंचीं तो माटी से जुड़ाव देखने को मिला। हो भी क्यों न, इसी माटी ने उन्हें नारी नेतृत्व से लेकर संघर्ष, सहनशीलता, ममता की प्रतिमूर्ति के रूप में गढ़ा। बतौर राष्ट्रपति मिलने वाली सुख सुविधाओं से दूर, उन्होंने रात अपने पुश्तैनी घर के उसी कमरे में गुजारी, जहां उनका जीवन बीता था, जहां वो अपने जीवन का संबल बनीं थीं।
आज अपनी जन्मतिथि पर राष्ट्रपति बच्चों के साथ समय व्यतीत करेंगी। वह राष्ट्रपति भवन स्थित कल्याण केंद्र में कर्मचारियों के बच्चों और अमर ज्योति चैरिटेबल ट्रस्ट में अनाथ बच्चों के साथ जन्मतिथि की खुशियां बांटेंगी।