नई दिल्ली। अगले लोकसभा चुनाव में भाजपा के सामने चुनौती पेश करने के लिए विपक्षी दल भले ही एकजुट होने की कोशिश कर रहे हों, लेकिन पुराने आंकड़े उन्हें परेशान करेंगे। 14 राज्यों और एक केंद्र शासित प्रदेश में भाजपा और उसके सहयोगी दलों को पिछले लोकसभा चुनाव में 50 फीसद या उससे अधिक वोट मिले थे।

इन राज्यों और केंद्र शासित प्रदेश में लोकसभा की 330 सीटें हैं, जिनमें भाजपा और सहयोगी दल 298 सीटें जीतने में सफल रही थी और अकेले भाजपा ने 255 सीटें जीती थीं। ध्यान देने की बात है कि 543 सीटों वाले लोकसभा में बहुमत के लिए 272 सीटों की जरूरत होती है।

साल 2019 में भाजपा को मिले थे जमकर वोट

2019 के लोकसभा चुनाव के आंकड़ों को देंखे तो छत्तीसगढ़, दिल्ली, गोवा, गुजरात, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, झारखंड, कर्नाटक, मध्यप्रदेश, राजस्थान, उत्तरप्रदेश और उत्तराखंड में भाजपा को अकेले 50 फीसद वोट मिले थे। वहीं बिहार और महाराष्ट्र में जदयू और शिवसेना जैसे सहयोगी दलों के साथ भाजपा 50 फीसद मत हासिल किया था।

भाजपा की इस सफलता के पीछे नए सामाजिक व जातीय समीकरण के बजाय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की लोकप्रियता की अहम भूमिका थी। दिल्ली, छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश, राजस्थान और झारखंड के विधानसभा चुनावों में हारने के बावजूद लोकसभा चुनावों में भाजपा का यह प्रदर्शन प्रधानमंत्री की लोकप्रियता के असर को दर्शाता है।

विधानसभा चुनाव हारने के छह महीने बाद हुए लोकसभा चुनाव में भाजपा छत्तीसगढ़ में 51.4 फीसद वोट के साथ 11 में से नौ सीटें, राजस्थान में 59.1 फीसद वोट के साथ 25 में से 24 सीटें (एक सीट सहयोगी दल को) और मध्यप्रदेश में 58.5 फीसद वोट के साथ 29 में से 28 सीटें जीतने में सफल रही थी। वहीं, विधानसभा चुनाव में भाजपा को छत्तीसगढ़ में महज 33.6 फीसद, राजस्थान में 39.3 और मध्यप्रदेश में 41.6 फीसद वोट मिले थे।

साल 2018 में कर्नाटक में भाजपा ने मारी थी बाजी

यही नहीं, कर्नाटक में भी 2018 के विधानसभा चुनाव में भाजपा 36.2 फीसद वोट के साथ बहुमत से दूर रह गई थी, लेकिन एक साल बाद लोकसभा चुनाव में 51.7 फीसद वोट के साथ 28 में से 25 सीटें जीतने में सफल रही और एक सीट भाजपा समर्थित निर्दलीय ने जीता था।

ध्यान देने की बात है कि चाहे लोकसभा का चुनाव हो या फिर विधानसभा का, भाजपा एक बार हासिल वोट फीसद हासिल करती है तो उसे बरकरार रखती है। पिछले महीने हुए कर्नाटक विधानसभा चुनाव में भी देखा जा सकता है, जहां 65 सीटों पर सिमटने के बावजूद भाजपा का लगभग 36 फीसद वोट हासिल किया।

हिमाचल प्रदेश, दिल्ली विधानसभा और एमसीडी चुनाव में भी यह रिकॉर्ड दिखा था। बात सिर्फ इन 14 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों तक सीमित नहीं है। 25 सीटों वाले आंध्रप्रदेश और 21 सीटों वाले ओडिशा में एकता की तलाश में जुटे विपक्षी दलों का जनाधार नहीं है।

कई मुद्दों पर विपक्षी दलों ने भी मोदी सरकार का दिया साथ

आंध्रप्रदेश में वाइएसआर कांग्रेस और ओडिशा में बीजेडी का जनाधार है, लेकिन दोनों दल राजग में नहीं होते हुए भी अहम मुद्दों पर संसद में मोदी सरकार के साथ खड़े होते हैं। आंध्रप्रदेश में प्रमुख विपक्षी दल टीडीपी भले ही राजग में नहीं हो, लेकिन चंद्रबाबू नायडू विपक्षी खेमे जाने के बजाय भाजपा पर ही डोरे डाल रही है।

के चंद्रशेखर को मंजूर नहीं कांग्रेस की अगुवाई

वहीं के चंद्रशेखर राव की बीआरएस तेलंगाना में भाजपा विरोधी होते हुए कांग्रेस के नेतृत्व वाले विपक्षी गठबंधन में जाने को तैयार नहीं है। एकता की तलाश की कोशिश में 23 जून को पटना में जुटने जा रहे विपक्षी दलों की सबसे बड़ी समस्या यह है कि कांग्रेस और आप को छोड़कर सभी दलों का जनाधार एक राज्य तक ही सीमित है।

कांग्रेस के वोटबैंक को हथियाने में जुटी आप

कांग्रेस से दिल्ली और पंजाब हथियाने वाली आप गुजरात और गोवा जैसे राज्यों में कांग्रेस के ही वोटवैंक के सहारे आगे बढ़ने की कोशिश में जुटी है। दूसरी ओर एक राज्य तक सीमित तृणमूल, डीएमके, सपा, सीपीएम, जदयू और आरजेडी जैसे दल दूसरे राज्यों में सहयोगी दलों की जनाधार बढ़ाने की स्थिति में कतई नहीं है।

इनमें अधिकांश दलों का अपने-अपने राज्यों में भाजपा के साथ सीधा मुकाबला है और यह लड़ाई उन्हें अकेले दम पर लड़नी होती है।