जिंदा कौमें पांच साल इंतजार नहीं करतीं.’ गैर-कांग्रेसवाद के जनक और समाजवादी चिंतक डॉ. राम मनोहर लोहिया का यह कथन आज की सरकारों के लिए भी उतना ही प्रासंगिक है जितना 1960 के दशक में जवाहर लाल नेहरू और इंदिरा गांधी की सरकारों के लिए था.उस समय की कांग्रेस पार्टी का एकाधिकार समाप्त करने और उसके कारण समाज में फैल रही बुराइयों को खत्म करने के लिए गैर-कांग्रेसवाद का आह्वान किया था तो आज अगर वे होते तो निश्चित तौर पर गैर-भाजपावाद का आह्वान करते. दुर्भाग्य की बात यही है उनके तमाम शिष्य या अनुयायी उनके विचारों की ठस व्याख्या करते हैं या फिर उनकी राह पर चलने का साहस नहीं जुटा पाते.उनकी 56 वीं पुण्य तिथि पर उन्हें स्मरण करने का सबसे बड़ा प्रयोजन यही होना चाहिए कि उनके चिंतन, साहस, कल्पनाशीलता और रणकौशल को आज के संदर्भ में कैसे लागू किया जाए.

गांधी जी के बाद डॉक्टर राममनोहर लोहिया ही सबसे प्रखर विचारक चिंतक लगते हैं.जो अपनी धरती, मिट्टीउसकी सुगंध से जुड़े हुए है। आज जब देश विभिन्न समस्याओं से जूझ रहा है तब डॉक्टर लोहिया ही ऐसे विचारक चिंतक हैं जिन की प्रासंगिकता आज भी बनी हुई है तथा भविष्य में भी उनकी प्रासंगिकता बनी रहेगी । 

 
डॉ. राममनोहर लोहिया भारतीय राजनीति के क्षितिज पर धूमकेतु की तरह प्रकट हुए। सदियों से व्याकुल और भटकती हुई भारतीय आत्मा जलते हुए प्रकाश-पिंड के रूप में प्रकट हुई और देखते ही देखते नज़रों से ओझल हो गई। लोहिया के उस प्रकाश-पिंड को उपद्रव और अराजकता लाने वाले उल्कापात के रूप में किसी ने भयभीत होकर देखा, तो किसी ने उसे नई राजनीति, नई दुनिया और नई सभ्यता के मसीहा के रूप में, और लोग उसके पीछे पागलों की तरह चलने लगे। समाज के स्थापित वर्गों तथा शासकों से मिली घोर उपेक्षा तथा बदनामी का सलीब कंधों पर उठाए हुए यह मसीहा सर्जनात्मक ज़िद्द के साथ चट्टानों से टकराने और कुछ नया गढ़ने के काम में लगा रहा। ध्वंस और निर्माण की शक्तियों को जगाने के उद्देश्य से मुर्दा कौम में प्राण फूंकने के लिए अघोरी साधु की तरह श्मशान-साधना, यह है डॉ. लोहिया के जीवन का समाहार।
 
लोहिया के व्यक्तित्व को भी उनके कर्म, सृजन और संकल्प के संदर्भ में देखा जाना चाहिए। उनके मन में भी शायद यही विचार रहा होगा। इसीलिए उन्होंने कहा कि किसी व्यक्ति का बुत या स्मारक उसके मरने के तीन सौ साल बाद बनाया जाना चाहिए जब उसके काम का पूर्वाग्रह-रहित मूल्यांकन होने लगता है और वक्ती ख्याति की धुंध छंट जाती है। जब उन्होंने कहा कि 'लोग मुझे समझेंगे जरूर लेकिन मेरे मरने के बाद' तो भी उनके मन में यही विचार रहा होगा कि उनके काम का मूल्यांकन आने वाली पीढ़ियां करेंगी। 
 

आज देश में गैर बराबरीभ्रष्टाचारभुखमरीगरीबीअशिक्षाबेरोजगारीकुपोषणजातिवादक्षेत्रवाद और आतंकवाद जैसी समस्याएं गहरायी हैं और शासन-सत्ता अपने लक्ष्य से भटका हुआ है तो इसके लिए सरकार की नीतियां और भ्रष्ट राजनीतिक व्यवस्था ही जिम्मेदार है।

 नैतिक और राष्ट्रशील मूल्यों में व्यापक गिरावट के कारण अमीरी गरीबी की खाई चौड़ी होती जा रही हैसरकारें बुनियादी कसौटी पर विफल हैं और सामाजिक-आर्थिक चुनौतियों से निपटने में नाकाम हैंनागरिक समाज के प्रति रवैया संवेदहीन है.

सांप्रदायिकताहिंदू-मुसलमान एकताभारत-पाक महासंघ जैसे विचारों के बाद भी सांप्रदायिकता की आंच से सारा देश समाज झुलस रहा हैउनके ऐसे मौलिक विचारों में ताकत तो हैपर उनके अनुयायी संगठन ने इसे नहीं बढ़ाया.मोटे तौर पर ये कुछ मौलिक अवधारणाएं हैंयहीं वे नीतियां भी हैंजिनके संदर्भ में लोहिया ने कहा था कि ‘उनके आदर्शों को मान कर चलने वाली पार्टी भले ही खत्म हो जाएउनकी नीतियां खत्म नहीं होगी.’  ‘आज नहीं तो कल कोई पार्टी खड़ी होगी और इन्हीं नीतियां के ईद गिर्द मुल्क को आगे ले जायेगी.’ क्योंकि दूसरा कोई पथ नहीं हैंआज यह पथ  केवल सुनसान हैबल्कि जोखिम भरा भीइस पर चलने से लोग डर रहे हैंपर पथ कहीं हैंतो पथिक आयेंगे ही। लोहिया महज नेहरू खानदान के आलोचकगैर कांग्रेसवाद के जनक या कुछ विवादास्पद नीतियों के प्रतिपादक नहीं थे.नवजागरण की पश्चिमी चकाचौंध पीड़ित भारतीय धारा के खिलाफ देशज समाजवाद व्यवस्था का एक अस्पष्ट खाका उन्होंने दिया 

‘‘भारतवर्ष की दशा इस समय बड़ी  दयनीय है एक धर्म के अनुयायी दूसरे धर्म के अनुयायियों के जानी दुश्मन हैं। अब तो एक धर्म  का होना ही दूसरे धर्म का कट्् टर शत्रु होना है। यह मार-काट  इसलिए नहीं की गई कि फलां आदमी  दोषी है, वरन इसलिए कि फलां  आदमी हिंदू है या मुसलमान है।

ऐसी स्थिति में हिंदुस्तान का  भविष्य बहुत अंधकारमय नजर आता  है। इन ‘धर्मों’ ने हिंदुस्तान  का बेड़ा गर्क कर दिया है। और  अभी पता नहीं कि ये धार्मिक दं गे भारतवर्ष का पीछा कब छोड़ेंगे । इन दंगों ने संसार की नजरों  में भारत को बदनाम कर दिया है।  और हमने देखा है कि इस अंधविश् वास के बहाव में सभी बह जाते हैं ।

सब के सब धर्म के यह नामलेवा  अपने नामलेवा धर्म के रौब को का यम रखने के लिए डंडे-लाठियां,  तलवारें-छुरें हाथ में पकड़ लेते  हैं और आपस में सर-फोड़-फोड़ कर  मर जाते हैं। बाकी कुछ तो फांसी  चढ़ जाते हैं और कुछ जेलों में  फेंक दिए जाते हैं।

 

आज जब फासीवादी ताकतेंपूरी ताकत से भारत को जिस डगर पर झोंकना चाहती हैं वहां तो यही संकट  खड़ा हो गया है की भारत में लोकतंत्र बचेगा भी कि नहीं  समाजवाद आयेगा कि नहीं यह द्वितीयक हो जाता हैतब  लोहिया की परंपरा को आगे बढ़ाते हुए फासीवाद के खिलाफ सभी समान विचारधारा वाले दलों को संकीर्ण राजनीतिक स्वार्थों को त्याग कर एक साथ आना होगा।

 ऐसे समय में फासीवाद के खिलाफ  लड़ाई में लोहिया जी प्रासंगिक  हो जाते हैं आज फिर देश को ऐसे  लोहिया की जरूरत है जो समान विचारधारा वाले सभी धर्मनिरपेक्ष  दलों को फासीवाद के खिलाफ इस लङाई में अपने साथ ला सकें।